मातृभाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम व संस्कृति की सजीव संवाहक होती है, यह
व्यक्तित्व के निर्माण,विकास और उसकी सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान बनाती है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता
फैलाने और बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए हर साल 21 फरवरी का दिन दुनियाभर
में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। बहुभाषिकता
भारतीय संस्कृति का मूल स्वभाव है। यहां के अधिकांश जन बहुभाषिक हैं। यहां की
भाषाओं में परस्पर संबंध भी है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने स्वयं के
अपने अनुभवों के आधार पर एक बार कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना,
क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी। हमारी
नई शिक्षा नीति सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण, विकास व उन्हें सशक्त बनाने की
दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। दुनिया में हजारों मातृ भाषाएं हैं। सभी प्रकार
की बोलियों, उपभाषाओं की गिनती की जाए तो यह लाखों तक पहुंचती है। मातृभाषा
दिवस पूरी दुनिया में मनाये जाने के ऐतिहासक कारण हैं। इसके राजनैतिक
निहितार्थ हैं, इसके सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। इसका मनुष्य की सभ्यता दृष्टि
से जुड़ा हुआ अर्थ संदर्भ भी है। आज के संदर्भों में बात की जाए तो दुनिया के
किसी भी राष्ट्र या समाज के आगे बढ़ने का रास्ता भी इसी से होकर जाता है। आज
दुनिया में विकास की जो गति चली है, पचास के आसपास स्वतंत्र हुए और उदित हुए
राष्ट्रों के विकास की गति का मूल्यांकन करके देखा जाऐ तो मातृभाषा किसी देश
के विकास,शांति, सुख, समृद्धि, वहाँ के नागरिकों की खुशहाली, सहज वैयक्तिक
अंर्तसबंध, सशक्त सामाजिक व्यवस्था इत्यादि के निर्माण में प्रभावी भूमिका
निभाती है। भारत के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध से उबरे चीन और जापान के विकास
और वहाँ के नागरिकों के जीवनस्तर, वहाँ सत्ता और समाज की कार्य निष्पादन
क्षमता, राष्ट्रीय विकास में व्यक्ति के योगदान और लगाव इत्यादि की ओर एक
सरसरी निगाह डाली जाए तो भारत से अलग इनमें कोई चीज है तो वह केवल इतना कि
उन्होंने बोलना, लिखना, पढ़ना, संवाद करना, समाज का संचालन करना और सरकारों
का बनना-बिगड़ना ये सबकुछ अपनी भाषा में किया। विज्ञान की भाषा के रूप में,
तकनीक की भाषा के रूप में, न्याय की भाषा के रूप में बाजार और व्यापार की
भाषा के रूप में अपनी मातृभाषा को स्वीकृति दी। ऐसा ही 1949 में उदित हुए
राष्ट्र इजराइल ने किया। हिब्रू जैसी लुप्त हो गई भाषा , जिसे बमुश्किल कुछ
दर्जन लोग जान सकते थे, पढ़ सकते थे, व्यवहार कर सकते थे, उस भाषा को भी
राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति दे कर के उन्होंने दुनिया में एक चमत्कार
किया है।
मुझे इस अवसर पर बरबस भारतेन्दु हरिशचंद्र की कुछ पंक्तियां याद आती हैं- 'निज
भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को
सूल।' निज भाषा में व्यवहार करना, मातृभाषा में पढ़ना, बोलना, समझना, जानना,
बताना और समझाना, यह व्यवहार जिस समाज में होता है, वह समाज उन्नति को प्राप्त
करता है और सभी प्रकार की उन्नति, सभी प्रकार के विकास, सभी प्रकार की समृद्धि
का मूल यही है। 21 फरवरी 2022 को हम इस बात पर संतोष जरूर व्यक्त कर सकते हैं
कि अब भारत के लोगों ने भी मातृभाषा के महत्व और उसकी ताकत को समझा है। पहली
बार मातृभाषा में शिक्षा को नीतिगत रूप से बल दिया गया है। पहली बार शिक्षा
नीति में यह स्वीकार किया गया है कि शिक्षण प्रक्रिया को तेज, परिणामकारी और
लक्ष्योन्मुखी बनाने के लिए मातृभाषा से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता।
पहली बार शिक्षा के अंदर भारत की बहुभाषिकता की ताकत की पहचान की गई है।
वस्तुत: मातृभाषा न केवल साहित्य,कला,संगीत और संस्कृति से जुड़े हुए जीवन के
पक्षों को प्रगल्भ बनाती है,श्रेष्ठ बनाती है,अपितु विज्ञान और तकनीक के
क्षेत्र में भी नव नवोन्मेष, नित नई कल्पनाओं की, संभावनाओं की वृद्धि करती
है। दुनिया के पैमाने पर चीन, कोरिया, जापान, रूस और अब तो कजाकिस्तान,
तजाकिस्तान, यूक्रेन और न जाने कितने पूर्वी यूरोप के छोटे- छोटे देश, इन
सबने अपनी मातृभाषा को अपने लोगों की शक्ति के रूप में स्वीकृति दी है। जो
संतोष और सुख तो देता ही है, सभ्यतागत विकास के भी बेहतर अवसर उपलब्ध कराता
है।
आज भारत की भाषाओं, भारत के जन की मातृ भाषाओं की चर्चा की जाए तो यह संविधान
की आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं तक सीमित नही है। अपितु भाषा के रूप में 105 से
भी अधिक भाषाएं भारत की ताकत हैं। इसमें बोलियों, उपबोलियों की चर्चा की जाए,
उनकी गणना की जाए तो यह संख्या सात- आठ सौ पहुंचती है। जिसमें किसी न किसी रूप
में मनुष्य के शिक्षण का कार्य चलता है। पर इन्हें शिक्षित नहीं माना जाता है।
हम मातृभाषा के स्थान पर विदेशी भाषा को स्वीकृति दिए हुए एक ऐसे राष्ट्र के
रूप में उभरे हैं जो अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता, मानसिक गुलामी से मुक्ति नही
प्राप्त कर सका है। विज्ञान और तकनीक किसी भाषा विशेष और विशेषत: अंग्रेजी
में ही हो सकता है, इस प्रकार की मूर्खताओं को हमने जड़बद्ध रूप से मान्य किया
है। 21 फरवरी इसकी याद दिलाता है कि इस प्रकार की जड़ता से, इस प्रकार की
मानसिक गुलामी से हमें मुक्ति चाहिए और इस मुक्ति के अनंतर ही वास्तविक
मुक्ति संभव है। इन सभी संदर्भों पर विचार करते हुए ऐसा लगता है कि दुनिया के
अन्य देशों लिए मातृभाषा मात्र उनके सांस्कृतिक बोध का साधन होगी लेकिन ये
भारत की सभ्यता के लिए नये निर्माण का साधन भी है। विज्ञान और तकनीक के
क्षेत्र में बेहतर कर दिखाने का साधन है। बेहतर कर दिखाने के लिए हमें अन्यों
की मातृभाषा का सम्मान करना, स्वीकृति देना और सीखने का यत्न करना चाहिए।
अपनी मातृभाषा में सीखने में निरंतरता लानी चाहिए, साथ ही भारत की विविध
भाषाओं में अनुवाद और र्निवचन के अवसरों का, संभावनाओं का बहु विस्तार करना
चाहिए।
हम यह जरूर कह सकते हैं कि नई शिक्षा नीति की उद्घोषणा के बाद भारत की विविध
भाषाओं को लेकर एक विश्वास का, एक उत्साह का, स्वीकृति और स्वागत का वातावरण
निर्मित हुआ है। लेकिन ये सब भावात्मक स्तर पर ही सीमित न हो अपितु यथार्थ के
धरातल पर उतरे इसके लिए केजी से पीजी तक शिक्षा के विविध प्रारूपों, विविध
स्तरों में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की संभावनाओं की तलाश करनी ही
पड़ेगी। तभी हम भारत के युवाओं में, भारत के लोगों में सृजनात्मक कल्पनाओं को
पुनर्स्थापित कर सकेंगे। भारत की हर भाषा में ज्ञान की एक विशिष्ट ज्योति है।
यह विशिष्ट ज्योति ही भारत में एकीकृत बहुलता मूलक समाज की निर्मिति करता
है। एक बद्ध, एक लक्ष्य, एक जन के रूप में सोच सकने वाले समाज की निर्मिति
करता है। इस आलोक में निश्चित रूप से भारतीय भाषाओं को देखा जाना चाहिए, भारत
में विविध भाषाएं बोलने वालों की मातृभाषा को देखा जाना चाहिए और मातृभाषा की
ताकत को मां की दूध की ताकत के रूप में समझना चाहिए। उसमें जो पोषण की क्षमता
है, वह किसी और दूध में नही है। वैसे ही मातृभाषा में ज्ञान को समृद्ध करने,
उपयोगी बनाने और नये- नये संभावनाओं के द्वार खोलने में, मातृभाषा की जो
भूमिका है वैसी भूमिका किसी अन्य आयातित और आरोपित भाषा की नही हो सकती है।
विश्व मातृभाषा दिवस ऐसी ही एक संभावना के द्वार खोलता है।